Wednesday, 22 June 2011

अगर ईमानदार होना पाप है, तो ये पाप सिर-आँखों पर by Maya Shankar Jha on Wednesday, June 22, 2011 at 9:44am डॉ. माया शंकर झा और भारत भारती समाज अन्ना हजारे के साथ हैं , उनके विचार से सहमत हैं I सत्य वचन !! बुजदिली !! कायरता !! और सत्य से पलायन !! इस देश के पिछडेपन का कारण है। कूंठित अमानसिकता बदहाली का मूल है ----इस मे संशय का कोई अवकाश नहीं है I जब हम एकजुट होकर किसी अच्छे काम में योगदान नहीं कर सकते तो कम से कम शांत रहे. देश भक्त वो ही कहलायेंगे जो निःस्वार्थ देश की सेवा में अपना योगदान देंगे. जो कुछ नहीं कर सकते वो मजबूर कहलायेंगे. मगर जो अच्छा काम करने वालो की आलोचना करेंगे वो देश के गद्दार ही कहे जा सकते हैं. वर्तमान समय में अन्ना जी और बाबा रामदेव ही ऐसे व्यक्ति हैं जो देश को नयी दिशा देने में निःस्वार्थ कार्यरत हैं वो भी अभी से नहीं विगत कई वर्षो से. उनकी भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई व्यकितगत नहीं है जो हम उनका साथ न दें. वो हमारी भी जिम्मेदारी है. देश की बुराई करना आसान है मगर देश से बुराई दूर करना बहुत ही मुश्किल. जो मुश्किल काम करता है अपनी जान की बाज़ी तक लगा के पूरे देश के सुख और सम्पन्नता के लिए अनशन करता है भूखा रहता है वो ही सबसे सच्चा देश भक्त है आज के समय में. और जो ऐसे देश भक्तों की आलोचना करें उन्हें देशद्रोही ही कहा जाएगा. क्योंकि keyboard warrior बने रहना आसान है मगर मैदान में आकर अत्याचार के खिलाफ खड़े होना अत्यंत दुष्कर है. ये so called आलोचक देश के लिए कितने दिन तक भूखे रह सकते हैं ? देश की भलाई के लिए क्या किया किसी ने आज तक ? बस ऐसे ही किसी को भी मान लें - वो देश भक्त है ? कभी नहीं i!! ..... हम सभी खुश रहना चाहते हैं मगर अक्सर हम ही यह चाहत भूल जाते हैं और ढेरो गम खुद ही पाल लेते हैं। कीजिए अपने आप से वादा कि खुश रहेंगे और दूसरों को भी खुशियाँ बाँटेंगे। आपाधापी के युग में मनुष्य सुबह से शाम तक अवसाद में रहता है। इस अवसाद के कारण शारीरिक-मानसिक बीमारियाँ लगी रहती हैं। फिर आज मनुष्य का अहं भी बहुत बढ़ गया है, उसकी आवश्यकताएँ बढ़ गई हैं। जब आवश्यकताएँ पूर्ण नहीं होतीं या अहं को चोट लगती है तो उसे बहुत क्रोध आता है। सत्य वचन !! बुजदिली !! कायरता !! और सत्य से पलायन !! इस देश के पिछडेपन का कारण है। करुणा के भाव के कारण ही मनुष्य को दूसरे का दर्द गहराई से समझ में आता है और वह उसे दूर करने की कोशिश करता है। इसके बदले कितना कष्ट मिलेगा, वह इसकी चिंता नहीं करता। दरअसल दूसरे के कष्ट दूर कर वह अनोखी तृप्ति का अनुभव करता है। उसका सोच होता है कि परोपकार ही सबसे बड़ा धर्म है। यह नश्वर मानव-शरीर किसी के काम आए इससे बड़ा परोपकार क्या हो सकता है। लोकपाल बिल पर बाबा रामदेव और अन्‍ना हजारे के बीच टकराव भ्रष्‍टाचार के खिलाफ चल रही मुहिम की लय बिगाड़ सकता है... यदि इस मुद्दे पर सफलता हासिल करनी है तो व्‍यक्तिगत स्‍वार्थों को तो किनारे रखना ही होगा... जब बात देशहित की हो रही हो तो श्रेय लेने की होड़ नहीं मचनी चाहिए...अच्छे विचारों में सदैव सकारात्मक संभावनाएं छिपी होती हैं। जनता की सरकार है प्यारे जनता ही लाचार है प्यारे नेताओं की काली करनी देश का बंटाधार है प्यारे लोकतन्त्र से लोक नदारद तंत्र की जय-जयकार है प्यारे कैसे देश बढ़ेगा आगे भारी भ्रष्टाचार है प्यारे भूख, गरीबी, महंगाई पर होता रोज विचार है प्यारे बढ़ती जाती हैं ये नित दिन सुरसा सा विस्तार है प्यारे आश्वासन की मधुर चासनी दिखा रहे दिन में ही तारे रामराज का स्वप्न मनोरम सबका बेड़ा पार है प्यारे रोजगार की नहीं गारंटी जीवन लगता भार है प्यारे रोटी, कपड़ा और मकान पर अपना कब अधिकार है प्यारे कोठी, बंगला, कार है फिर भी थोड़े की दरकार है प्यारे लूटो जितना लूट सको तुम यही तो शिष्टाचार है प्यारे धर्मगुरु संदेश बाँचते धर्म बना बाज़ार है प्यारे धर्मक्षेत्र में कुकर्मों की महिमा अपरंपार है प्यारे सत्य, अहिंसा, लोकभावना कितना उच्च विचार है प्यारे मगर इन्हीं की आड़ में धंधा कैसा अत्याचार है प्यारे बढ़ती जाती भूख ‘अर्थ’ की भूखों की भरमार है प्यारे कौन सकेगा पाट खाई यह ईश्वर भी लाचार है प्यारे अस्मत लुटती अबलाओं की मस्ती का ब्यापार है प्यारे पैसा फेंक तमाशा देखो यही जगत व्यवहार है I यह संसार क्या हैं ? मनुष्य उत्पन्न होता हैं, मरता हैं, फिर उत्पन्न होता हैं, फिर मरता हैं. जब से यह संसार हैं यह चक्र चल ही रहा हैं , बहुत दीर्घकालीन रोग हैं यह. इस बिमारी की एकमात्र चिकित्सा हैं ,ठीक विचार या सुविचार. आप कहेगे की केवल विचारों से यह सब कैसे ठीक हो सकता हैं ?? परन्तु सच्चाई यह हैं की विचार की शक्ति बहुत महान हैं. विचार ठीक हैं तो मनुष्य ठीक मार्ग पर , सुपथ पर , ठीक लक्ष्य की और चलता हैं. विचार शक्ति से मनुष्य , समाज और देश -- सब सफलता की और बढ़ते हैं. विचार ही गलत हो जाए तो सब विनाश और दुःख की और बढ़ने लगते हैं. विचार की शक्ति से मनुष्य बदल सकते हैं जातियां बदल सकती हैं देश बदल सकते हैं. उच्च विचार क्षमता मनुष्य को उच्च बना देती हैं. इस समूह पर हमें देश, धर्म , समाज , राजनीति, अशिक्षा, गरीबी, अज्ञानता, कुपोषण , अपराध, वर्तमान आर्थिक स्थिति इस सब समस्याओं पर मिलजुलकर विचार विमर्श करना हैं. बहुत छोटे स्तर पर ही क्यों ना हो इन समस्याओं को कम करने के लिए एक -दुसरे को विचारों की शक्ति प्रदान करनी हैं. किसी भी राष्ट्र के लिए तीन वस्तुए आवश्यक हैं. ये तीन वस्तुए हो तो राष्ट्र शक्तिशाली बनता हैं और आगे बढ़ता हैं. ये तीन वस्तुएं हैं -- बुद्धिबल, बाहुबल और धनबल. आप सभी विद्वान हैं और आपको ईश्वर ने बुद्धिबल प्रचुर मात्रा में दिया हैं और एक समूह पर जोड़कर उस बुद्धिबल को और भी तेज करने का अवसर दिया हैं. तो आइये हम वेदों में दोहराई जाने वाली प्रार्थना फिर एक बार दोहराए और सुविचारों का आदान-प्रदान शुरू करे. तन्मे मतः शिवसंकल्पमस्तु !!! हे भगवान् !! मेरे मन को शिव संकल्प वाला, उच्च विचारों वाला बना दो ! मैं साहित्य की एक अदना किन्तु सचेत और जागरूख पाठक हूँ. जब मुझे किसी लेखक की रचना पर खरी-खरी प्रसंशा करने का अधिकार हे तो उसके विचलन और झोल पर उंगली रखने का अधिकार भी तो होना चाहिए ना? लेखकीय स्वतंत्रता की बात तो सभी करते हैं, क्या पाठकीय स्वतंत्रता भी नहीं होनी चाहिए? क्या पाठक बस आरती उतरता रहे? या विरुदावली गाये? ऐसा क्यों हो कि मैं तारीफ करूँ तो बांचें खिल जाये और झोल पर उंगली रखु तो बोखला जाये. साहित्यकार (लेखक और आलोचक) तो स्वाभाव से ही सहिष्णु और संवेदनशील होते हैं, फिर थोड़ी सी खरी-खरी कहने से ही बोखला क्यों जाते हैं? क्या प्रशस्ति सुनने के आदि हो गए हैं, अपने अहंकार के संकुचित दायरे में गाफिल? या फिर फतवेबाज लेखक- कि "खबरदार जो मेरे लिखे पर कोई सवाल उठाया, फेसबुक की दुनिया से ही उठा देंगे!” मैं ऐसI नहीं हू जो जहर को गुड में मिलाकर/लपेटकर देने का पाप करू! जहर देना हे तो जहर कि तरह ही दिया जाना चाहिए . मुझे चापलूसी नहीं आती! ना ही मुझे किसी कॉलेज या विश्वविध्यालय में अध्यापक बनना हे, ना ही बडI लेखक बनना हे. पाठक हूँ बस पाठक ही बने रहना चाहतI हूँ. आलोचक बनने का भी कोई मंसूबा नहीं पाला है! अगर ईमानदार होना पाप है, तो ये पाप सिर-आँखों पर! सिविल सोसाइटी के मायने तो सिर्फ आठ -दस लोगों तक सिमट कर रह गए हैं , और उनके अंतर्विरोध भी देर - सवेर पूरी तरह से उजागर हो जायेंगे . उनके स्वार्थ , महत्त्वाकांक्षा आदि भी पूरी तरह से उजागर हो जायेंगे I "हिम्मत से सच कहो तो बुरा मानते हैं लोग रो रो के बात करने की आदत सीखते हैं लोग I कैसे जियेंगे इस नर-पिसांच के साथ सीधे-सादे लोग सच कहने से सूली पर चढ़ा दिए जाते हैं लोग I" डॉ. माया शंकर झा , कोलकाता

Thursday, 16 June 2011

जनता से भिड़े नहीं, जनता से जुड़े सरकार



प्रणब मुखर्जी की इस बात से मैं पूरी तरह सहमत हूं कि कानून बनाने का काम संसद का है। संसद के इस अधिकार को चुनौती देना सर्वथा अलोकतांत्रिक है, लेकिन मूल प्रश्न यह है कि इस मर्यादा को भंग किसने किया? पहल किसने की? क्या अन्ना हजारे के लोगों ने कहा था कि लोकपाल विधेयक पर विचार करने के लिए संयुक्त समिति बनाई जाए? क्या यह पहल सरकार की तरफ से नहीं हुई थी? सरकार को यह अधिकार किसने दिया कि वह संसद की मर्यादा का उल्लंघन करे?
क्या संसद ने सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित करके सरकार से अनुरोध किया था कि वह ऐसी कमेटी बनाए? सरकार के दो-चार मंत्रियों (और शायद प्रधानमंत्री ने भी) उस समय जनाक्रोश को ठंडा करने के लिए जो ठीक समझा, वह कर दिया। उन्होंने इस कमेटी में न तो अपने गठबंधन के अन्य दलों को और न ही विपक्षी दलों को कोई प्रतिनिधित्व दिया। यानी संसद की सरासर अवहेलना हुई। यदि इस कमेटी में सभी दलों का प्रतिनिधित्व होता तो कुछ हद तक यह माना जाता कि संसद के सम्मान की रक्षा हुई। जहां तक लोकपाल आंदोलन का सवाल है, उसके नेताओं से भी गलती हो गई। सरकार के साथ कमेटी बनाने की जरूरत क्या थी? उन्होंने वैकल्पिक विधेयक बनाकर दे दिया था। सरकार को उसमें से जितना मानना होता, मानती।
शेष प्रावधानों के लिए वह सरकार और सांसदों को समझाती, उन पर दबाव डालती, जनमत तैयार करती, लेकिन वह भी सरकारी जाल में फंस गई। मैंने पहले ही दिन  लिखा था कि यह कमेटी फेल हो जाएगी, क्योंकि सरकारी विधेयक नख-दंतहीन है और जनलोकपाल विधेयक के चेहरे पर दांत ही दांत हैं। यदि सरकार डर जाए और मानो कि वह जनलोकपाल विधेयक को शब्दश: मान ले तो भी क्या होगा? उसे सरकार नहीं, संसद पास करेगी। कांग्रेस पार्टी क्या उसे अकेले दम पास कर सकती है? क्या उसके पास स्पष्ट बहुमत है? संयुक्त कमेटी में तो सिर्फ कांग्रेसी मंत्री ही हैं न! क्या कांग्रेस के सहमत हो जाने पर सारे दल भी सहमत हो जाएंगे। यह ऐसा विधेयक है, जिसे कम से कम दो-तिहाई बहुमत से पास किया जाना चाहिए।
इस समय देश के विपक्षी दलों ने भी जनलोकपाल का स्पष्ट समर्थन नहीं किया है। वे कांग्रेस की मुसीबत बढ़ा रहे हैं। वे कह रहे हैं, पहले आप अन्ना के पहलवानों से कुश्ती लड़कर दिखाओ, फिर हम देखेंगे। दूसरे शब्दों में, सारे दल डरे हुए हैं। उन्हें पता है कि कांग्रेस के दिन पूरे हो गए हैं। अब हमें सत्ता में आना है। हम अपनी गर्दन लोकपाल से क्यों नपवाएंगे? पूरे कुएं में ही भांग पड़ी हुई है।
ऐसी स्थिति में यदि अन्ना दुबारा अनशन करेंगे और जैसा कि रामदेव ने कहा है कि वे अपना भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन दोगुने जोश-खरोश के साथ चलाएंगे तो आप कल्पना कर सकते हैं कि देश का माहौल कैसा हो जाएगा? उसके सामने आपातकाल का आंदोलन तो बच्चा-सा मालूम पड़ेगा। सरकार यदि आपातकाल थोप देगी तो भी उससे क्या फर्क पड़ेगा? यह ठीक है कि इस जनाक्रोश का नेतृत्व जेपी या लोहिया जैसा कोई व्यक्ति नहीं कर रहा है, लेकिन रामदेव और अरविंद केजरीवाल जैसे युवा लोगों ने आज पूरे देश में जो हवा बना दी है, उसका सामना करने की क्षमता वर्तमान सरकार में बिल्कुल भी नहीं है।
यदि वह क्षमता जरा भी होती तो न तो वह लोकपाल पर औपचारिक संयुक्त कमेटी बनाती और न ही रामलीला मैदान के अहिंसक सत्याग्रहियों पर मध्यरात्रि में हमला बोलती। इन युवा आंदोलनकारियों के साथ छल-कपट या चालाकी करने के बजाय वह यदि ईमानदारी और धैर्य का परिचय देती तो अपनी डूबती नाव को बचा लेती। उसे बच निकलने का रास्ता मिल जाता।
लेकिन लगता है सरकार इतनी घबरा गई है कि वह एक के बाद एक अपने रास्ते बंद करती चली जा रही है। प्रणब मुखर्जी जन आंदोलनों को सिविल सोसायटी की तानाशाही कह रहे हैं। उनका अभिप्राय यह है कि आपने पांच साल के लिए सांसद चुन लिए हैं। वे ही आपका भला-बुरा सोचेंगे और कानून बनाएंगे। आप पांच साल तक चादर ओढ़कर सो जाइए। आपको अपना मुंह और आंख खोलने की जरूरत नहीं है। यदि आप आंदोलन करते हैं तो यह संसदीय लोकतंत्र की अवहेलना है। दिव्य है आपका तर्क! सांसदगण और संसद कौन हैं? ये जनता के सेवक हैं या मालिक हैं? मालिक ने सेवक को काम पर लगा दिया तो क्या सेवक को निर्देश देने का उसका अधिकार भी खत्म हो जाता है? जनसेवकों की ऐसी सीनाजोरी तो किसी संसदीय लोकतंत्र में देखी नहीं जाती।
कांग्रेस को कुल 11 करोड़ 80 लाख वोट मिले हैं, लेकिन आज लगभग 100 करोड़ लोगों की राय क्या है, क्या यह कांग्रेस को पता नहीं चल रहा है? भ्रष्टाचार को खत्म करने के साथ अब जनमतसंग्रह (रेफरेंडम) और वापसी (रिकॉल) की मांग भी मजबूत होती चली जा रही हैं। डॉ लोहिया ने क्या खूब कहा था कि जिंदा कौमें पांच साल इंतजार नहीं करतीं। प्रणब दा के कई तर्क उन पर ही पलटवार करते हैं। वे कहते हैं कि आंदोलनकारियों के पांचों प्रतिनिधि नामजद हैं। वे जनता द्वारा चुने हुए नहीं हैं। तो क्या भारत के प्रधानमंत्री जनता द्वारा चुने हुए हैं? वे तो लोकसभा के किसी एक निर्वाचन क्षेत्र से भी आज तक नहीं चुने गए।
यदि ये प्रतिनिधि चुने हुए नहीं हैं तो आप इनसे बात क्यों कर रहे हैं? इनसे चल रही बात का हूबहू प्रसारण आप क्यों नहीं करना चाहते? इसे आप सर्कस कहते हैं तो संसद का सजीव प्रसारण क्या है? ऐसा कहने से क्या संसदीय लोकतंत्र की गरिमा बढ़ती है? देश के लिए यह बहुत नाजुक समय है। यह इसलिए और नाजुक हो गया है कि सत्तापक्ष और आंदोलनकारियों, दोनों के पास बड़े नेताओं का अभाव है। लेकिन प्रणब मुखर्जी जैसे अनुभवी सत्तासेवी चाहें तो बहुत रचनात्मक भूमिका निभा सकते हैं।
............... डॉ. माया शंकर झा