Thursday, 16 June 2011

जनता से भिड़े नहीं, जनता से जुड़े सरकार



प्रणब मुखर्जी की इस बात से मैं पूरी तरह सहमत हूं कि कानून बनाने का काम संसद का है। संसद के इस अधिकार को चुनौती देना सर्वथा अलोकतांत्रिक है, लेकिन मूल प्रश्न यह है कि इस मर्यादा को भंग किसने किया? पहल किसने की? क्या अन्ना हजारे के लोगों ने कहा था कि लोकपाल विधेयक पर विचार करने के लिए संयुक्त समिति बनाई जाए? क्या यह पहल सरकार की तरफ से नहीं हुई थी? सरकार को यह अधिकार किसने दिया कि वह संसद की मर्यादा का उल्लंघन करे?
क्या संसद ने सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित करके सरकार से अनुरोध किया था कि वह ऐसी कमेटी बनाए? सरकार के दो-चार मंत्रियों (और शायद प्रधानमंत्री ने भी) उस समय जनाक्रोश को ठंडा करने के लिए जो ठीक समझा, वह कर दिया। उन्होंने इस कमेटी में न तो अपने गठबंधन के अन्य दलों को और न ही विपक्षी दलों को कोई प्रतिनिधित्व दिया। यानी संसद की सरासर अवहेलना हुई। यदि इस कमेटी में सभी दलों का प्रतिनिधित्व होता तो कुछ हद तक यह माना जाता कि संसद के सम्मान की रक्षा हुई। जहां तक लोकपाल आंदोलन का सवाल है, उसके नेताओं से भी गलती हो गई। सरकार के साथ कमेटी बनाने की जरूरत क्या थी? उन्होंने वैकल्पिक विधेयक बनाकर दे दिया था। सरकार को उसमें से जितना मानना होता, मानती।
शेष प्रावधानों के लिए वह सरकार और सांसदों को समझाती, उन पर दबाव डालती, जनमत तैयार करती, लेकिन वह भी सरकारी जाल में फंस गई। मैंने पहले ही दिन  लिखा था कि यह कमेटी फेल हो जाएगी, क्योंकि सरकारी विधेयक नख-दंतहीन है और जनलोकपाल विधेयक के चेहरे पर दांत ही दांत हैं। यदि सरकार डर जाए और मानो कि वह जनलोकपाल विधेयक को शब्दश: मान ले तो भी क्या होगा? उसे सरकार नहीं, संसद पास करेगी। कांग्रेस पार्टी क्या उसे अकेले दम पास कर सकती है? क्या उसके पास स्पष्ट बहुमत है? संयुक्त कमेटी में तो सिर्फ कांग्रेसी मंत्री ही हैं न! क्या कांग्रेस के सहमत हो जाने पर सारे दल भी सहमत हो जाएंगे। यह ऐसा विधेयक है, जिसे कम से कम दो-तिहाई बहुमत से पास किया जाना चाहिए।
इस समय देश के विपक्षी दलों ने भी जनलोकपाल का स्पष्ट समर्थन नहीं किया है। वे कांग्रेस की मुसीबत बढ़ा रहे हैं। वे कह रहे हैं, पहले आप अन्ना के पहलवानों से कुश्ती लड़कर दिखाओ, फिर हम देखेंगे। दूसरे शब्दों में, सारे दल डरे हुए हैं। उन्हें पता है कि कांग्रेस के दिन पूरे हो गए हैं। अब हमें सत्ता में आना है। हम अपनी गर्दन लोकपाल से क्यों नपवाएंगे? पूरे कुएं में ही भांग पड़ी हुई है।
ऐसी स्थिति में यदि अन्ना दुबारा अनशन करेंगे और जैसा कि रामदेव ने कहा है कि वे अपना भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन दोगुने जोश-खरोश के साथ चलाएंगे तो आप कल्पना कर सकते हैं कि देश का माहौल कैसा हो जाएगा? उसके सामने आपातकाल का आंदोलन तो बच्चा-सा मालूम पड़ेगा। सरकार यदि आपातकाल थोप देगी तो भी उससे क्या फर्क पड़ेगा? यह ठीक है कि इस जनाक्रोश का नेतृत्व जेपी या लोहिया जैसा कोई व्यक्ति नहीं कर रहा है, लेकिन रामदेव और अरविंद केजरीवाल जैसे युवा लोगों ने आज पूरे देश में जो हवा बना दी है, उसका सामना करने की क्षमता वर्तमान सरकार में बिल्कुल भी नहीं है।
यदि वह क्षमता जरा भी होती तो न तो वह लोकपाल पर औपचारिक संयुक्त कमेटी बनाती और न ही रामलीला मैदान के अहिंसक सत्याग्रहियों पर मध्यरात्रि में हमला बोलती। इन युवा आंदोलनकारियों के साथ छल-कपट या चालाकी करने के बजाय वह यदि ईमानदारी और धैर्य का परिचय देती तो अपनी डूबती नाव को बचा लेती। उसे बच निकलने का रास्ता मिल जाता।
लेकिन लगता है सरकार इतनी घबरा गई है कि वह एक के बाद एक अपने रास्ते बंद करती चली जा रही है। प्रणब मुखर्जी जन आंदोलनों को सिविल सोसायटी की तानाशाही कह रहे हैं। उनका अभिप्राय यह है कि आपने पांच साल के लिए सांसद चुन लिए हैं। वे ही आपका भला-बुरा सोचेंगे और कानून बनाएंगे। आप पांच साल तक चादर ओढ़कर सो जाइए। आपको अपना मुंह और आंख खोलने की जरूरत नहीं है। यदि आप आंदोलन करते हैं तो यह संसदीय लोकतंत्र की अवहेलना है। दिव्य है आपका तर्क! सांसदगण और संसद कौन हैं? ये जनता के सेवक हैं या मालिक हैं? मालिक ने सेवक को काम पर लगा दिया तो क्या सेवक को निर्देश देने का उसका अधिकार भी खत्म हो जाता है? जनसेवकों की ऐसी सीनाजोरी तो किसी संसदीय लोकतंत्र में देखी नहीं जाती।
कांग्रेस को कुल 11 करोड़ 80 लाख वोट मिले हैं, लेकिन आज लगभग 100 करोड़ लोगों की राय क्या है, क्या यह कांग्रेस को पता नहीं चल रहा है? भ्रष्टाचार को खत्म करने के साथ अब जनमतसंग्रह (रेफरेंडम) और वापसी (रिकॉल) की मांग भी मजबूत होती चली जा रही हैं। डॉ लोहिया ने क्या खूब कहा था कि जिंदा कौमें पांच साल इंतजार नहीं करतीं। प्रणब दा के कई तर्क उन पर ही पलटवार करते हैं। वे कहते हैं कि आंदोलनकारियों के पांचों प्रतिनिधि नामजद हैं। वे जनता द्वारा चुने हुए नहीं हैं। तो क्या भारत के प्रधानमंत्री जनता द्वारा चुने हुए हैं? वे तो लोकसभा के किसी एक निर्वाचन क्षेत्र से भी आज तक नहीं चुने गए।
यदि ये प्रतिनिधि चुने हुए नहीं हैं तो आप इनसे बात क्यों कर रहे हैं? इनसे चल रही बात का हूबहू प्रसारण आप क्यों नहीं करना चाहते? इसे आप सर्कस कहते हैं तो संसद का सजीव प्रसारण क्या है? ऐसा कहने से क्या संसदीय लोकतंत्र की गरिमा बढ़ती है? देश के लिए यह बहुत नाजुक समय है। यह इसलिए और नाजुक हो गया है कि सत्तापक्ष और आंदोलनकारियों, दोनों के पास बड़े नेताओं का अभाव है। लेकिन प्रणब मुखर्जी जैसे अनुभवी सत्तासेवी चाहें तो बहुत रचनात्मक भूमिका निभा सकते हैं।
............... डॉ. माया शंकर झा

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