शिक्षा, चरित्र और संस्कार की कहानियां गढ़ने वाले ज्यादातर महापुरुष इसका वास्तविक अर्थ और शिक्षा से इसका सम्बन्ध कैसे लगा रहे हैं.. यह विरोधाभासी एवं विचारणीय है. विरोधाभास की वजह हमारी प्राथमिक शिक्षा में जीवन की उत्पत्ति डार्विन, और ओपेरिन ने हमे “योग्यतम की उत्तरजीविता” “सुव्यवस्थित” और “तथाकथित वैज्ञानिक” ढंग से सिखाई है., और जो थोडा बहुत लंगड़ा लूला सनातनी ज्ञान हमे मिल गया वह हमारी मिथ्यभासी धार्मिक ग्रंथों से… (जी हाँ यही वास्तविक स्थिति है धार्मिक और सांस्कृतिक विरासत का.) इसी विरोधाभास की वजह से “यदि योग्यतम ही श्रेष्ठ है तो कोई किसी गरीब की सहायता करने की बजाये किसी शक्तिशाली की दलाली करना ही पसंद करेगा.” ये है भ्रष्टाचार की जड़. ज्यादातर चरित्र और संस्कार का ढोल पीटने वाले महापुरुष यौन क्रियाओं और मनोभावों के दमन को चरित्र की संज्ञा देते हैं.. यह विरोधाभास हमारे लूले लंगड़े सनातनी ज्ञान की शक्ति नगण्य बना देता है. उदहारण कृष्ण की 16800 रानियाँ थीं.. और किशोरावस्था में गोपिकाओं के साथ रास-लीला जैसी कल्पित कथाओं की देन है (कपोल कल्पित इसलिए क्योंकि यदि इसे सत्य मान लिया जाए तो आप अंदाजा लगा सकते हैं…) यदि विद्यार्थी जीवन की सनातनी परिकल्पना “काकचेष्टा, वकोध्यानम, स्वान-निद्रा तथैव च, अल्पहारी गृहस्त्यागी विद्यार्थिनः पञ्च लक्षणं” से विलग विदेशी प्रभावों (ज्यादातर नक़ल या अंधभक्ति ) को ही शिक्षा और विकास का आधार और परिभाषा मान लिया जाये तो मानसिक विरोधाभास उसी ओर जायेगा जिसके प्रेरण और आकर्षण अधिक होगा. ऐसे में संस्कारों की या चरित्र की कल्पना सिर्फ शाब्दिक ही रह जाती है. नतीजा सनातनी संस्कृति में जिस राजनीति का उद्देश्य जनकल्याण होना चाहिए विदेशी शक्तिशाली पराक्रम और बाजारीक व्यभिचार से वह राजनीति आज बाजारू वेश्या बन के रह गयी है… ये सिर्फ उदहारण हैं… और इसी पश्चिमीकरण का आप, मै और सभी किसी न किसी रूप में समर्थन कर ही रहे हैं तो क्यों न हम संस्कारिक मूल्यों को भी पश्चिमी तराजू में तौल कर ही निर्धारित करें.
भारत भारती समाज के लिए ,
डॉ. माया शंकर झा ,
कोलकाता
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